पुुस्तक का नाम -“नई बेताल पच्चीसी
कथा चयन एवं संयोजन -बलराम अग्रवाल
प्रकाशन -प्रवीण प्रकाशन
मूल्य -450/0
समीक्षक -मनोरमा पंत ,भोपाल
परिवर्तन सृष्टि का नियम है। समय के साथ-साथ सब-कुछ बदलता है। लघुकथा भी इसका अपवाद नहीं है। एक ऐसे समय में जब साहित्य के क्षेत्र में लघुकथा अपनी जड़ें जमा चुकी है और लोकप्रियता की बुलंदी पर पहुँच चुकी है, तब लघुकथा के पुरोधाओं ने इस पर गंभीरतापूर्वक सोच-विचार कर लघुकथा की शैलियों को नए-नए कलेवर में प्रस्तुत करने का बीड़ा उठाया है। हाल में ही, बलराम अग्रवाल जी द्वारा संयोजित/संपादित ‘नई बेताल पच्चीसी’ प्रयोगधर्मिता के नवीन हस्ताक्षर के रुप में पाठकों के सामने आई है।
ऐसा क्या है नई बेताल कथाओं में जो इसे समूचे कथा साहित्य में विशेष दर्जा प्रदान करता है।
सबसे महत्वपूर्ण बात है ,इन बेताल कथाओं का सामयिक कथानक तथा रहस्यमय वर्णन शैली ।लगभग हर लघुकथा में देश एवं समाज में व्याप्त विसंगतियों, बदहालियों तथा असंतोषों को दर्शाया गया है ।
संकलन की अधिकतर लघुकथाओं में राजनीति की चौरस पर बिछी कुटिल चालों, विशेषकर चुनावी हथकंडों को कथानक बनाया गया है जो यह सिद्ध करता है कि आज का जनमानस इन कुटिल चालों से अत्यधिक त्रस्त है। नैतिक व सामाजिक मूल्यों के क्षरण को विषय बनाया गया है। उन्हें कहीं हास्य शैली में तो कहीं व्यंग्य शैली में वर्णित किया गया है।
परम्परागत शैली की पारिवारिक, सामाजिक लघुकथाओं का अभाव इसमें स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है, पर उनमें उठाए गये मुद्दे जरूर सम्मिलित किये गये हैं ।
मूल बेताल कथाओं में बेताल ही विक्रम से सवाल करता है, पर बलराम जी की बेताल पच्चीसी में मामला उलटा है। यहाँ विक्रम बेताल को कई बार घुड़क देता है और उससे सवाल पूछने लगता है।
वंदना गुप्ता की ‘शर्त बेताल की’ कथा में तो बेताल विक्रम को तीन छूट देता है—अपनी भी कहानी कहने की, मौन तोड़ने की एवं अपनी कहानी से उपजे प्रश्न भी पूछने की।
‘बेताल से सवाल’ में योगराज प्रभाकर का विक्रम स्वयं बेताल से तीन प्रश्न पूछता है—‘अंधे की रेवड़ियाँ खाकर उसके अपनों की आँखें खराब क्यों हुईं?’, ‘बेगानों ने उसकी रेवड़ियों का बहिष्कार क्यों किया?’ तथा ‘अंधा अपनी रेवड़ियाँ बेचने में सफल हो पायेगा?’
अनिता रश्मि की ‘उल्टी गंगा’ में भी आम आदमी अपने पर लदे बेताल से कहता है—‘जमाना बदल गया है तो हालात भी बदले हैं। इस बार कहानी मैं सुनाऊँगा, जवाब तुम्हें देने होंगे।’
जब विक्रम स्वयं सवाल पूछता है तो बेताल के उत्तर जानने के लिये पाठक अधीर हो जाता है और यही इन कथाओं की सफलता है।
भोलानाथ सिंह की ‘और बेताल चला गया’ का बेताल कहानी सुनाने में नहीं, सीधे-सीधे प्रश्न पूछने में दिलचस्पी दिखाता है ।
‘नई बेताल पच्चीसी’ की कथाओं में आपको कहीं-भी दबी, कुचली स्त्री नहीं दिखेगी। आत्मविश्वास से लबरेज, स्वयं निर्णय लेने वाली स्त्री के बेबाक बोल इन लघुकथाओं में देखेंगे।
वन्दना गुप्ता की कथा में विक्रम तीसरी शर्त के उत्तर में कहता है—‘तन्वी ने तीसरी शर्त नामंजूर कर दी क्योंकि वह वैचारिक रूप से भी दृढ़ लड़की है।’
हर बेताल कथा में अलग-अलग मुद्दे, अलग-अलग समस्याएँ उठाई गईं और विक्रम द्वारा उनका निदान भी सुझाया गया।
बलराम अग्रवाल जी की ‘कंधे पर बेताल’ कथा में बेताल विक्रम से पूछता है—‘रूपलाल ने इतनी आसानी से अपनी कमाई क्यों लुट जाने दी?’ तो विक्रम दार्शनिक भाव से जीवन की अमूल्य सीख देता है—‘हर हाथापाई को संघर्ष नहीं कहा जाता, जोश के जुनून में बगैर हथियार आदमी का हथियारबंद आदमी से उलझ जाना उसकी मूर्खता भी सिद्ध हो सकती है। भाग जाना हमेशा पलायन नहीं कहलाता।’
संध्या तिवारी की ‘बेताल प्रश्न’ में वैश्विक संस्कृति के मोहजाल में फँसे युवा मन के द्वन्द को बारीकी से उकेरा गया है। बेताल ने इसे इस समय की सबसे ज्वलंत समस्या बताया।
हरभगवान चावला की ‘तीन राजा’ कथा मानो आधुनिक भारत की तस्वीर ही सामने रख पाने में सफल रही है। तीनों राज्यों की जनता बदहाली में जी रही है, पर तीनों राजा लोकप्रिय हैं। इसका राज है—चतुराई से जनता का मूल मुद्दे से ध्यान हटा देना। परिणामस्वरूप प्रजा वही देखती-सुनती है जो राजा दिखाता है, सुनाता है।
साम, दाम, दंड, भेद द्वारा कैसे चुनाव जीते जाते हैं, इसका सुन्दर चित्र खींचा है संतोष श्रीवास्तव ने अपनी बेताल कथा ‘सुनो बेताल’ में। देखिये एक बानगी—‘चुनाव में मरे हुए लोगों की बड़ी जरूरत होती है। वोटिंग लिस्ट में दो तरह के मुर्दों के नाम दर्ज रहते हैं, एक उनका जो मर चुके हैं और दूसरा उनका जो पोलिंग के दिन मरे पड़े रहते (याने वोट देने नहीं जाते)! कितना तीखा व्यंग है वोट न देने वाले लोगों पर।
आगे, आधुनिक नेता, विक्रम कहता है—‘सारे मुर्दों के वोट चाहिए। बाकी मैं खरीद लूँगा। बिजली, पानी, स्कूल, अस्पताल देने और बेरोजगारी खत्म करने के वादे करके।’
पवन जैन की ‘अदृश्य तरंगें’ के कुछ तीखे वाक्यों पर गौर करें—‘आज की दुनियां में न्यायप्रिय होना नहीं, न्यायप्रिय होने का ढिंढोरा पीटना अधिक महत्वपूर्ण है।’
खिलौना हाथ में लेकर विक्रम ने पूछा—‘यह क्या है?’ बेताल बोला—‘इसकी बदौलत तानाशाह तबियत के लोग लोकतांत्रिक पद्धति से देश पर राज कर रहे हैं। प्रायोजित तरीके से अपनी प्रशंसा और वाहवाही करवा रहे हैं। जनता को अपने मन की बात बता रहे हैं।’
प्रिंट मीडिया/समाचार पत्र जो बात कहने में हिचकिचाते हैं, वह बात पवन जैन की एक छोटी-सी बेताल-कथा कह डालती है।
एक छोटी-सी लघुकथा ने निष्पक्ष पत्रकारिता का काम कर दिखाया, प्रशंसनीय है यह बात।
रामकुमार आत्रेय की कथा ‘बेताल का अन्तिम सवाल’ में भारत की चुनाव प्रणाली पर प्रश्न उठाये गये हैं—‘चुनाव में भाग लेने वाला कोई उम्मीदवार ऐसा नहीं होता, जिसके विरुद्ध कोई न कोई आपराधिक आरोप न लगा हो।’ ‘बेईमान और भ्रष्ट व्यक्तियों द्वारा चुनकर भेजा व्यक्ति राष्ट्रभक्त नहीं हो सकता।’ ‘ऐसे देश में रहने का क्या फायदा जिसके चुने हुए प्रतिनिधि भ्रष्ट हों, जिनका मुखिया भ्रष्ट और राष्ट्रद्रोही हो।’
संतोष सुपेकर की कथा ‘बेताल के सवाल’ में विक्रम राजनीति की बात करता है—‘तब राजनीति केवल राजनीतिज्ञों के बीच हुआ करती थी। अब राजनीति एक वायरस की तरह आम लोगों में भी फैल गई है।’
सुपेकर जी अब एक चुभती-सी व्यंग्य पंक्ति लिखते है—‘किसान आजकल गीत नहीं गा रहे, नारे लगा रहे हैं कभी जिन्दाबाद के, कभी मुर्दाबाद के।’ धर्म के बारे में बेताल के बोल कटु तो हैं पर हैं सत्य—
‘पहले धर्म एक अफीम हुआ करता था अब इसका स्थान नारे और घेराबंदी ले चुके हैं जो उससे कहीं अधिक विषैले और घातक नशे हैं।’
‘नई बेताल पच्चीसी’ में संकलित कई कथाओं में पेड़ों के कत्लेआम पर खुलकर लिखा गया। मधु जैन की ‘नश्वरता’ लघुकथा में बेताल की चिंता जायज है कि पेड़ ही नहीं बचेंगे तो वह लटकेगा कहाँ। अनघा जोगलेकर की ‘पुनरावृत्ति’ बेताल कथा में चिपको आंदोलन की चर्चा है।
पुरुषोत्तम दुबे की ‘बेताल का पुर्नजन्म’ का निचोड़ है—‘एक निरक्षर ही दूसरे निरक्षर को परास्त कर सकता है।’
इस बेताल कथा को पढ़कर पाठक लेखक की मेधा सेआश्चर्यचकित रह जायेंगे।
योगराज प्रभाकर जी ने ‘बेताल से सवाल’ कथा में ‘अंधा बाँटे रेवड़ी, अपने-अपने को देय’ मुहावरे को कथा में पिरोकर पाठकों का भरपूर मनोरंजन किया है।
सुभाष नीरव की ‘बेनाक लोग’ बेताल कथा में श्यामलाल की बेटी भाग जाती है, उनकी नाक कट जाती है। शर्म से वे घर में बंद हो जाते हैं, पर बाहर निकलने पर सभी को नकटा पाते हैं। इस बात को कथा में इतनी सुन्दरता से वर्णित किया गया है कि केवल वाह! वाह! शब्द ही निकलता है।
अनिता रश्मि की ‘उल्टी गंगा’ में लेखिका ने ऐसा कथा शिल्प दिखाया है कि आम आदमी के पूछे प्रश्नों की झड़ी से बेताल परेशान होकर भाग खड़ा हुआ।
क्षमा सिसोदिया की ‘पीठ पर लदा बेताल’ में कलम के ऊपर आकाओं के ऊल-जलूल आदेशों का बेताल लदा होने से कलम की विवशता का तार्किक विश्लेषण दृष्टिगोचर होता है।
घनश्याम अग्रवाल की ‘गवाही’ बेताल कथा में समाज में व्याप्त भ्रष्टाचार तथा अस्पतालों की बदहाली पर तीखा कटाक्ष किया गया है।
प्रबोध कुमार गोविल की ‘कर्म और भाग्य’ बेताल कथा में कर्म और भाग्य पर सार्थक चर्चा करके जंगल कटाई पर चिंता जाहिर की।
कनक हरलालका की ‘बेताल की ताल “में आम आदमी पर चढ़े अनेकानेक बेतालों से त्रस्त आदमी की परेशानियों का बड़ी खूबसूरती से वर्णन किया है ।
अब, कुछ ऐसी लघुकथाओं पर निगाह डालें जो समाज में एक उदाहरण के रुप में पेश की जा सकती हैं। इनकी लघुकथाओं में तीखे कटाक्ष हैं, दिल को चुभने वाले व्यंग्य हैं, जो तथाकथित सभ्य समाज की कथनी और करनी की पोल खोलते हैं । कुछ उदाहरण—
खून के मुकदमे दो चश्मदीद गवाह होने के बावजूद खूनी छूट गया क्योंकि गवाह झूठे करार कर दिए गये।
पढ़ें, घनश्याम अग्रवाल जी की ‘गवाही’ बेताल कथा में विक्रम के तर्क—
पहला, ‘क्योंकि कोई भी व्यक्ति सरकारी अस्पताल में दो महीने रहकर जिन्दा वापिस नहीं आ सकता।’ तथा दूसरा, ‘चूंकि यह घटना भारत की है और भारत में कोई भी माई का लाल आधे घंटे में राशन नहीं ला सकता।’
महेश दर्पण की ‘उल्टी रीत’ में (आधुनिक सत्तारूढ नेतृत्व) राजा पर गहरा कटाक्ष किया गया है—‘अब सवालों को छाना जाने लगा है, वही सवाल राजा तक पहुँचाये जाते हैं जो उनके लिए असुविधाजनक न हों।’
जसवीर चावला अपनी बेताल कथा में लिखते हैं—‘कोई भक्त देख ले तो देश में हाहाकार मच जाए। कई एकता अखंडता के मशाल रथ निकल पड़े।’
योगराज प्रभाकर जी की ‘बेताल से सवाल’ का यह तीखा कटाक्ष देखें—‘हिन्दुस्तानी आदमी को एक बार ‘सर’ कह दो, तो वह इस कदर फूलकर कुप्पा-सा फूल जाता है कि जेन्युइन समस्याओं पर भी ढंग से बात करना भूल जाता है।’
पुरुषोत्तम दुबे ‘बेताल का पुर्नजन्म’ में व्यंग्यात्मक लहजे में गहरी बात कह जाते हैं—‘दरअसल उसने एक राजनीतिज्ञ के कहने पर साँप की बाँबी में हाथ डाल दिया था, जिसके एवज में साँप ने उसे काट लिया। परिणामस्वरूप सिवाय राजनीति के, किसी अन्य कार्य के योग्य वह रहा ही नहीं गया।’
हर काल में कुछ प्रश्न ऐसे होते हैं जो अनुत्तरित ही रह जाते हैं। उत्तर देने वाला अधिकतर मौन धारण कर लेता है और प्रश्नकर्ता हार-थक कर चुप बैठ जाता है। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि प्रश्नकर्ता का उद्देश्य केवल वस्तुस्थिति से अवगत कराना होता है, वह उत्तराकांक्षी नहीं होता। इस संग्रह में ऐसी भी बेताल कथाएँ हैं जिनमें विक्रम या बेताल उत्तर नहीं देता।
अशोक भाटिया जी ‘बेताल की नयी कहानी’ में बेताल विक्रम से पूछता है—‘आदमी में इंसानियत का एहसास आग लगने के बाद ही क्यों होता है?’
राजा के पास इस प्रश्न का कोई सटीक उत्तर नहीं था ।
महेश दर्पण की ‘उल्टी रीत’ बेताल कथा में आधुनिक विक्रम पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देने की बजाय पलायन कर जाता है ।
अनीता रश्मि का बेताल भी प्रश्नों के मायाजाल में फँसकर ऐसा घबरा गया कि ‘मैं नहीं, मैं नहीं’ कहता हुआ भाग खड़ा हुआ।
योगराज जी ने अपनी लघुकथा ‘क्या बोले बेताल’ में बेताल से तीन पूछे—‘अंधे की रेवडियाँ खाने के बाद उसके अपनों की आँखें खराब क्यों हुईं?’, ‘रेवडियाँ पाने को तरसते लोगों ने उसकी रेवड़ियों का बहिष्कार क्यों किया?’ तथा ‘क्या इन परिस्थितियों में अंधा अपनी रेवड़ियाँ बेचने में सफल हो जाएगा?’ इन प्रश्नों के उत्तर दिए बिना ही बेताल जाकर एक ट्रेन में प्रकट हो गया।
भोलानाथ सिंह का बेताल भी बिना उत्तर सुने ही चला जाता है; प्रश्न थे—‘क्या मतदान की खर्चीली प्रणाली में बदलाव नहीं आना चाहिए?’, ‘संविधान के अनुसार सबको समान अधिकार मिला है, परंतु सुविधा और महत्व देते समय भेदभाव होता है, ऐसा क्यों?’ तथा ‘चुनाव जीतने वाला हर कालखंड में मनमानी करता है या लूट मचाता है, ऐसा क्यों?’ इन प्रश्नों के उत्तर कौन देना चाहेगा? बेताल भी क्यों दे।
मूल बेताल कथाओं में बेताल केवल कथावाचक है। वह कथानक से निःस्पृह रहता है, कोई राय नहीं देता है; परन्तु बलराम अग्रवाल जी की नई बेताल कथाओं में वह ‘चिपको आंदोलन’ का भी सक्रिय पात्र है (अनघा जोगलेकर की ‘पुनरावृत्ति’) देखिए—‘आदिवासियों की पीठ पर बैठे चिपको आंदोलन के बेताल वापस अपने-अपने पेड़ों पर जा लटके।’
सुभाष नीरव जी का बेताल एक स्टेडियम के स्टेट पर जा पहुँचा और अपनी कला का प्रदर्शन करने लगा ।
हम सब ने चार ब्राह्मण पुत्रों की वह कथा जरूर पढ़ी होगी जिसमें अपने पांडित्य के बल पर उन्होंने मरे हुए शेर को पुनः जीवित कर दिया; और जिंदा होते ही शेर ने उन सबको खा लिया था। अब उन्हीं ब्राह्मणों की कहानी जसबीर चावला जी ने आधुनिक संदर्भ में इतनी कुशलता से गढ़ी है कि दंग रह जाना पड़ता है।
एक-एक हड्डी के टुकड़े को जोड़कर जब ब्राह्मण पुत्रों ने जो शरीर खड़ा किया, वह जिंदगीभर दरिंदा बनकर लोगों के जीवन से खेलता रहा था। उसमें केवल प्राण डालना ही शेष रह गया था। चौथे आधुनिक ब्राह्मण ने दुनियादारी दिखाते हुए उसे जल्दी से जल्दी दफनाने की सलाह यह कहते हुए दी कि—‘अतीत की मूर्खता को नहीं दोहराना चाहिए।’ यह लघुकथा सीधे-सीधे ‘शठे शाठ्यम समाचरेत्’ सिद्धान्त की ओर इशारा करती है।
अंत में, मैं यह कहकर अपनी बात समाप्त करना चाहती हूँ कि ‘नई बेताल पच्चीसी’ को इसमें संकलित-समायोजित कथाओं की नवीनता, अनोखी रहस्यमय वर्णन शैली के कारण पाठकों द्वारा सहजता से सराहा व स्वीकारा जाएगा।
समाप्त
समीक्षक : मनोरमा पंत, भोपाल (म. प्र.)
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