यों-ही….
कई बार मन करता है बात करलूँ तुमसे
टच ही तो करना है केवल फोन के ऑप्शन को तुम कुछ कह सको…
शायद …
सुनने की प्यास बुझ जाए
शायद..
मौन ही कुछ कह जाओ
मैं जी उठु…
अपने भीतरी-बाहरी कल्मषों को छोड़
अनगिन प्रश्न से जूझती रहती दिनरात..
उत्तर पा जाऊँ तुमसे खास
कभी भी किसी सूरत नहीं होगा ऐसा..
जानती हूँ फिर-फिर क्यों मन भागता है तुम्हारी ही ओर…
अगले वर्षो का किया कुछ योग
बनाकर कान्हा धर लिया
नाम तुम्हारे का जोग
साहस इतना भी नहीं देखूँ नयन भर तुमको
भीड़ में भी ठहर-ठहर याद आना तुम्हारा,
विचलित करता है मुझे
सोचती हूँ बात कर लूँ तुमसे …
निधि मद्धेशिया
कानपुर