मैनेजर पांडेय अपनी पुस्तक आलोचना में सहमति – असहमति के भीतर साहित्य और जनतंत्र में संबंध की बात करते हुए नागार्जुन की कविताओं और लोक से ली गई चीजों की बात भी करते हैं। साहित्य में जनतंत्र की स्थापना रूप  के जरिए भी होती है और नागार्जुन का उदाहरण देते हुए स्पष्ट करते हैं कि कैसे वह जनता से चीजें लेकर जनता को लौटा कर साहित्य को और जनतांत्रिक बनाते हैं। साहित्य के साथ  गौरव पांडे भी ऐसा ही काम करते हुए नजर आते हैं।  मुझे ऐसा महसूस होता है कि हबीब तनवीर द्वारा रचित नाटक आगरा बाजार नाटकों  को और जनतांत्रिक बनाने का प्रयास है । इस लेख में हम साहित्य में जनतंत्र और आगरा बाजार के संबंधों की तलाश  करेंगे।  

 मैन्जर पाण्डे  नागार्जुन के बारे में  जो बात कहते हैं उसको मैं नीचे उद्धृत कर रहा हूं जिस से उसके द्वारा आगरा बाजार नाटक के बारें में और बेहतर समझ का निरामन हो पाए।  

“नागार्जुन कभी-कभी लोक प्रचलित पुराने गीतों और उनकी धुनों का उपयोग करते हुए समकालीन वास्तविकता और विचार की कविता लिखते हैं। ताकि जन उस कविता के रूप और उसकी धुन से आत्मीयता अनुभव करते हुए उसमें व्यक्त वास्तविकता और विचार को सहज रूप से आत्मसात कर सके। ऐसी ही उनकी एक लोकप्रिय कविता है :

आओ रानी, हम ढोगे पालकी, यही हुई है राय जवाहर लाल की

नागार्जुन कविता को जनता तक पहुंचाने के लिए भक्तिकाल के सन्तों और भक्तों की कविता की पंक्तियों और ढाँचों का उपयोग करते हैं; क्योंकि वे जानते हैं कि भक्ति काल की कविता जन जीवन में रमी हुई कविता है। उनकी एक कविता है अमेरिका के राष्ट्रपति जॉनसन पर जो सन्त रैदास के प्रसिद्ध पद प्रभु जी, तुम चन्दन हम पानी की मदद से लिखी गयी है। वह कविता इस प्रकार है : 
हम काहिल हैं, 
हम भिखमंगे,
तुम हो औढरदानी
अब की पता चला है प्रभुजी, 
तुम चन्दन हम पानी 
हम निचाट धरती निदाघ की, 
तुम बादल बरसाती
अबकी पता चला है प्रभुजी
   तुम दीपक हम बाती।”1 

अगर आप इस बात पर गौर करें तो आपको महसूस होगा कि नागार्जुन जनता से काफी निकट के कवि हैं । वह लोक  की परंपरा को अपने काव्य के जरिए लोग को एक नया रूप प्रदान करने का प्रयास कर रहे थे। आगरा बाजार नाटक को देखें तो हमको पता लगेगा कि हबीब तनवीर ने भी लोक  से चीजें लेकर लोक  को लौटाने का प्रयास किया है। चाहे वह दृश्य की बात हो या नाटक की उनके नाटक आगरा बाजार में नजीर को मंच पर ना दिखाने का कारण शायद यही है कि नजीर से बड़ा जनतांत्रिक कवि  कोई हुआ ही नहीं है नजीर कवि  ना होकर जनता के भीतर रमी  हुई भावना के रूप में व्याप्त है  जिनको व्यक्त करना बिना मंच पर लाए सरल सा है। हबीब तनवीर भी जिस नाटक  आंदोलन से जुड़े हुए थे जिस के बारे में पहले के अध्ययनों में आपको बताया गया है।  जिसको हम बैक तो रूटस थिएटर  कहते हैं । उन्होंने छत्तीसगढ़ी परंपरा को लेकर आज के प्रदर्शन के रूप में प्रस्तुत किया उसे वहां से लाकर मंच पर रख दिया है।  पांडे जी इसी ही लेख में आगे यह बात करते हैं की 

“कविता में जनतन्त्र केवल रूप के माध्यम से ही नहीं आता। उसमें सच्चा जनतन्त्र तब आता है जब कविता में जन हो, उसका जीवन हो, उसके जीवन की वास्तविकताएँ, समस्याएँ, आशाएँ और आकांक्षाएँ हों, उसका सुख-दुख हो और उसके जीवन की प्रकृति, संस्कृति और विकृति भी हो यह सब नागार्जुन की कविता में बहुत है और वह जगजाहिर है, इसलिए यहाँ उसकी चर्चा अनावश्यक है। नागार्जुन के समानधर्मा हिन्दी के अनेक कवि, कुमार विकल के शब्दों में ‘जनतन्त्र में उग रहे वनतंत्र’ को देखकर चिन्तित और परेशान होते रहे हैं और उन्होंने अपनी चिन्ता और परेशानियों को अपनी कविताओं में व्यक्त किया है।”2

नजीर के  काव्य में आप को ऐसे  उदाहरण भरपूर नज़र आते है।अगर यह कहा जाए की नज़्जेर दर्सल जन का ही काव्य रचते है तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। नज़ीर  अपने आप में जनतांत्रिक कवि है ही साथ में हबीब द्वारा रचित अगर बाजार नाटक में जन को प्रदर्शित करते है। कोई कथानक  ना होने के बावजूद भी एक कथा है जो पूरे नाटक को बांध के रखती है।  साथ में नाटक का कोई मुख्य किरदार नहीं है ,अर्थात हर एक किरदार मुख्य किरदार के रूप में नजर आता है। ऐसा महसूस होता है जिस किरदार से संबंधित कथा अभी नाटक के भीतर चल रही है वह उसका नायक है शायद इसीलिए आगरा बाजार नाटक के भीतर हर किरदार वक़्त -वक़्त पर नायक के रूप में उभरकर दर्शकों के सामने प्रस्तुत होता है। इस सब के साथ हबीब ने नजीर के काव्य को आगरा के किसी राज महल के बाहर किसी गांव के दृश्य का चयन नहीं किया है वह नाटक का स्थान एक बाजार  रखते हैं। बाजार दरअसल में सबसे जनतांत्रिक  स्थान है हर किसी की पहुंच है तो हर किसी का प्रतिनिधि मौजूद है। मैनेजर पाण्डेय  जी जिस बात को रेखांकित किया है वह आगरा बाजार में पूर्ण रूप से मौजूद है, केवल रूप में ही नहीं अपनी अंतर्वस्तु में भी पूर्ण रूप से जनतांत्रिक है। क्योंकि यह नाटक नजीर के बारे में होते हुए भी जनता के बारे में है।  आप बाजार में एक ऐसा दृश्य का निर्माण करनें , जिसमें गालिब का शेर हो तब भी वे नाटक उतना ही प्रभावशाली होगा जितना शायद नजीर के काव्य ने बनाया है परंतु नजीर का काव्य बाजार से उत्पन्न काव्य है या उस में आम जनता के जनजीवन के बारे में ज्यादा बात है इसलिए बाजार या जनता पर नाटक बनाना सरल हो जाता है या उस वक्त के बाजार का पुनर्निर्माण करना  संभव कार्य प्रतीत होता है। 

 इसी के साथ मैन्जर पाण्डेय एक बात और करते हैं कि

“जनतन्त्र का गहरा सम्बन्ध मानवीय संवेदनशीलता से है। अगर वह न हो तो जनतन्त्र के सारे सिद्धान्त और प्रयोग व्यर्थ हैं। देवताले की कविता उसी मानवीय संवेदन शीलता को जगाने वाली कविता है। ऐसी ही कविता पढ़ते हुए कार्ल मार्क्स का यह कथन याद आता है कि कविता मनुष्यता की मातृभाषा है।”3

इस बात को मध्य नजर रखे तो शायद हम आगरा बाजार नाटक में कई ऐसे दृश्य देखते हैं जहां पर मानवता की चरम सीमा नजर आती है ,उदाहरण के लिए हम नाटक के अंतिम दृश्य में कोठे पर उस पागल इंसान के साथ हुए  बर्ताव को या फिर रीछ  का खेल,  बाजार में मारपीट दंगा  हुआ ओर फिर वह लोग साथ आगाए  यह सब  मानवता के लक्षण नहीं है तो और क्या है इन सब चीजों के भीतर  जब आप आगरा बाजार पड़ते हैं तो आपको मानव संबंध मानवतावादी सोच एक दूसरे के प्रति सहानुभूति भी नजर आती है। 

इस लेख  के अंत में अगर ऊपर हुई  बातचीत के आधार पर देखा जाए तो यह कह सकते हैं  की आगरा बाजार नाटक नजीर के ऊपर होते हुए भी जनतंत्र की सच्ची पहचान है।  नजीर का काव्य नाटक का संवाद ही बढ़ाता है पर विचार रूप में आगरा बाजार साहित्य में जनतंत्र की स्थापना में  मील का पत्थर है। अगर बाजार अपने रूप अपने कठनक अपने विचार के जरिए साहित्य को जनतान्त्रिक बनाते हुए जनता को इस का सच्चा प्रतिनधि बनाता है। 

संदर्भ सूची 
1 – पाण्डेय ,मैन्जर ,आलोचना में सहमति -असहमति,वाणी प्रकशन ,2013 पृष्ठ संख्या  -38
2- वहीं- 39
3- वहीं -41 

ग्रंथ सूची
पाण्डेय ,मैन्जर ,आलोचना में सहमति -असहमति,वाणी प्रकाशन ,2013
https://www.hindisamay.com/content/3177/1/ हबीब-तनवीर-नाटक-आगरा-बाजार.cspx
जैन,निर्मला,हिंदी आलोचना बीसवीं शताब्दी, नेशनलशिंग हाउस,दिल्ली, संस्करण 1975.
त्रिपाठी,विश्वनाथ,हिंदी आलोचना,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली, संस्करण 2016
सिंह ,बच्चन ,आधुनिक हिंदी आलोचना के बीज शब्द, वाणी प्रकाशन,दिल्ली, संस्करण 2010
मृत्युंजय,हिंदी आलोचना में कैनन निर्माण की प्रतिक्रिया,राजकमल प्रकाशन,नई दिल्ली,
शुक्ल,रामचंद्र आचार्य,हिंदी साहित्य का इतिहास,कला मंदिर,नई सडक,नई दिल्ली,संस्करण 1997
पाण्डेय,मैनेजर,समाज शास्त्र की भूमिका, हरियाणा साहित्य अकैडमीके ,पंचकूला संस्करण 2006
Awasthi, Suresh, and Richard Schechner. “‘Theatre of Roots’: Encounter with Tradition.” TDR (1988-) 33, no. 4 (1989): 48–69. https://doi.org/10.2307/1145965.

कार्तिक मोहन डोगरा
8920458350
kartikdogra.18@gmail.com
164 ,pocket 14,sector -20, Rohini, Delhi

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